दोस्तों, परिस्थितियाँ सभी की एक जैसी कभी नहीं होगी। दुख-सुख का मेला हमेशा ही लगा रहेगा। पर आपके अपनों की पहचान दुख में ही होगी। आपको अपना 'परिवार' कहने वाले लोग दुख के समय आपसे मुँह मोड़ लेंगे। इस कहानी में कुछ ऐसा ही आपको देखने को मिलेगा। कहानी का नाम थोड़ा अलग है पर कहानी पढ़ने के बाद आपको लगेगा कि यही नाम इस कहानी के लिए ठीक था।
कहानी की शुरुवात एक मोबाइल कॉल से होती है।"ट्रिंग ट्रिंग", "ट्रिंग ट्रिंग"। कॉल करनेवाला कहता है,"गुडमार्निंग सर, मैं सुरेश सर बोल रहा हुँ। बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाते हुए चार महीने हो गए, सर। क्या हम सभी को इस बार सैलरी मिलेगी ?"
"क्यों नहीं मिलेगी ! जरूर मिलेगी ! अगले महीने जैसे जैसे बच्चों की फीस आएगी वैसे हम सारे टीचर्स को सैलरी देते जाएँगे। आप फ़िक्र मत कीजिए।," मैनेजमेंट के शुक्ला सर ने आश्वासक स्वर में उत्तर दिया।
"ठीक है, सर। धन्यवाद। " कह कर टीचर ने फ़ोन रख दिया।
वापस दो महीने बाद सुरेश सर ने शुक्ला
सर को कॉल किया पर शुक्ला सर का जवाब वही था बच्चो की फीस आएगी तो ही सैलरी सभी को दी जाएगी। दिन बीतते गए, महीने आते गए। बहुत से टीचर्स की ज़िंदगी कर्ज में डूबती गई।
दुकानदार - "नमस्कार सुरेश सर। कैसे हो?"
"ठीक ही हूँ, बस किसी तरह चल रहा है सब, आप सभी के आशीर्वाद से।" सुरेश सर ने जवाब दिया।
दुकानदार ने कहा,"सुरेश सर, एक बात बोलू? बुरा मत मानिएगा। पिछले तीन महीने का आपके राशन का पैसा बाकी है वो जल्दी दे
दीजिए। आप भी जानते है आजकल हालात क्या है।" सुरेश सर ने असहज होकर उत्तर दिया,"जल्दी ही दे दूँगा, अगले महीने तक स्कूल से सैलरी आते ही।" यह सुनते ही दुकानदार ने कड़क शब्दों में कहा,"आप तीन महीने से ऐसे ही बोल रहे है सर, अगर आपको आगे राशन चाहिए तो पैसे देकर ले जाइए। आगे कोई उधार नहीं मिलेगा।" सुरेश सर बिना कुछ बोले शर्मिन्दा होकर घर चले आए। और आखरी उम्मीद समझ कर उन्होंने शुक्ला सर से बात करने का निश्चय किया।
चार महीने बाद, फ़ोन की घंटी फिर बजती है। "ट्रिंग ट्रिंग", "ट्रिंग ट्रिंग"। फ़ोन उठाते ही, "गुडमॉर्निंग सर मैं सुरेश।"
"हाँ बोलो सुरेश। कैसे हो? " यहाँ वहाँ की बातें करते हुए शुक्ला सर मुद्दे की बात टालने लगे।
"सर, आपने कहा था सैलरी मिलेगी इसलिए कॉल किया। " सुरेश सर ने बड़े आदर और नम्र भाव से कहा।
"मैंने बोला था न फीस आएगी तो दूँगा! आप लोगों को क्या लगता है? मैंने कोई बैंक खोल के रखा है? बोल चुका हूँ, फीस आएगी दूँगा।"
शुक्ला सर का बहुत ही बदतहज़ीब जवाब था।
टीचर ने उदास मन से कहा "सर मेरी परिस्थिति ठीक नहीं है। पूरा परिवार मुझ पर आश्रित है, कर्ज का बोझ बढ़ रहा है, कभी कभी अगले दिन के खाने के बारे में सोचना पड़ता है, क्या करूँ समझ नहीं आता, इसलिए आप से मदद माँग रहा हुँ।" शुक्ला सर ने झल्ला कर बोला, "तुम ही बताओ मैं क्या करूँ? क्या मुझे प्रोब्लम्स नहीं है? क्या मेरा परिवार नहीं है?"
टीचर ने नम्रता से कहा,"सर, आप ही बोलते थे हम सब एक परिवार है। तो क्या मैं आपके
परिवार का हिस्सा नहीं? "
"मैंने ऐसा नहीं कहा कि सैलरी नहीं दूँगा। फीस आएगी तो दे दूँगा, नहीं आएगी तो क्या कर सकता हुँ। मुझे मेरा भी तो देखना है। और मुझे सभी का ध्यान रखना है मेरे लिए सब एक बराबर है।" जितने बहाने दे सकते थे शुक्ला सर ने अपने जवाब में दिया।
सुरेश सर ने भारी मन से कहा "सर, आप से पूरी उम्मीद थी। और असल में मैंने तो बस अपना हक ही माँगा। फिर भी एक अंतिम बार आप से पूछना चाहुँगा कब तक सैलरी दे पाएँगे?"
गुस्से में शुक्ला सर ने कहा," देखो, फीस जैसे ही
आएगी हम सभी को देने की शुरुवात करेंगे।
समय और महीना नहीं बता सकता। और आप को नहीं जम रहा तो आप स्कूल छोड़ सकते है। आपकी मर्जी।"
सुरेश सर ने कहा, "धन्यवाद सर। शायद आपने कभी यह अहसास नहीं किया कि हम टीचर्स ने अपने पसीने से इस स्कूल की बगिया को सींचा है। टीचर्स के योगदान को शायद ही कभी आप समझ पाएँ । मैंने आपसे छोटी सी मदद माँगी वह भी सारे रास्ते बंद होने पर, जिसके लिए आपने मुझे दुत्कार दिया। पर मैं फिर भी आपको सम्मान से 'थैंक्स' बोलूँगा, टीचर हुँ न।"
इतना बोलकर सुरेश सर ने फ़ोन कट कर दिया।
और अगले दिन एक नहीं,कई सारे टेलीफोन की घंटियाँ एक साथ बजती है "ट्रिंग ट्रिंग", "ट्रिंग ट्रिंग"। पर फोन उठाते ही खबर सुन कर हर कोई सन्न रह जाता है। और फिर वही खबर आग की तरह अख़बार, सोशल मीडिया के द्वारा लोगो तक पहुँचती है कि एक टीचर ने पेसों की तंगी की वजह से फाँसी लगा कर आत्महत्या कर ली। वह कोई और नहीं था वही टीचर था जिसकी कहानी हमने अभी अभी पढ़ी।
दोस्तों, यह कहानी किसी एक टीचर की नहीं है, बल्कि कई सारे टीचर्स की है, कई सारे लोगों की है, जिन्होंने लॉकडाउन के दौरान पैसे के अभाव में, खाने के अभाव में, मदद न मिलने के अभाव में,आत्महत्या का पर्याय चुना आत्महत्या करने की कोशिश की, जिसके जिम्मेदार उनके ही लोग है जो कभी इन्हें अपना परिवार कहते थे पर मदद की बात आई, हक देने की बात आई तो सब पीछे हट गए।
इस कहानी का उपदेश यह बिल्कुल नहीं कि मुश्किलों के आगे हार मान ली जाएँ। आत्महत्या किसी भी समस्या का हल नहीं। जीवन है तो परेशानियाँ होंगी ही, उनका मुकाबला कर आगे बढ़ना ही जिंदगी है। टीचर्स तो हमारे देश के, युवा पीढ़ी के निर्माता है, वे ही हार मान जाएँ तो क्या होगा? पर ज़रूरी यह भी है कि मुश्किल में इंसान ही इंसान के काम आए ताकि मजबूरियाँ किसी को गलत कदम लेने पर विवश न करे।
✍️त्रिभुवन शर्मा
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